ऋग्वैदिक काल:
ऋग्वेद भारत के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथों में से एक है जिसमें कश्मीर के मुज पर्वत से लेकर विन्ध्यांचल पर्वत क्षेत्र के उत्तर तक के भू-भाग का वर्णन है। इस प्रकार, ऋग्वेद में संदर्भित किए गए काल के संबंध में छत्तीसगढ़ के कोई साक्ष्य नहीं होते हैं।
वेदों के वर्गीकरण के अनुसार, ऋग्वेद का काल समय 1500-1200 ईसा पूर्व होता है और यह भारतीय इतिहास के सबसे प्राचीन प्रमाण है। छत्तीसगढ़ का संबंध भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है, लेकिन ऋग्वेद के वर्णन में उल्लिखित भू-भाग के संबंध में इसका कोई भी साक्ष्य नहीं होता है।
उत्तर वैदिक काल:
हमारे छत्तीसगढ़ राज्य को इतिहास की घटनाओं से जुड़ा नहीं माना जा सकता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि कौशितकी ब्राह्मण ग्रंथ में विन्ध्यांचल पर्वत का वर्णन मिलता है जो कि इस क्षेत्र का बहुत ही प्राचीन इतिहास दर्शाता है। इसके अलावा, शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में नर्मदा नदी का उल्लेख रेवा नदी के रूप में होता है जो कि इस क्षेत्र के बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कृति और इतिहास का प्रतीक है।
इस काल में, छत्तीसगढ़ में आर्यों का प्रवेश तथा प्रसार हुआ था। इससे छत्तीसगढ़ का इतिहास नए रूप में विकसित हुआ और इस क्षेत्र में संस्कृति एवं विकास का बढ़ता हुआ चेहरा देखने को मिला।
इस तरह से, हमारे छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास और संस्कृति के बारे में जानकारी हमें यह सिद्ध करती है कि यह क्षेत्र भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण हिस्सों में से एक है।
रामायण काल में छत्तीसगढ़ का इतिहास (Chhattisgarh Ka Itihas):
रामायण काल में छत्तीसगढ़ के दक्षिणी कोसल का भाग हुआ करता था जिसकी राजधानी कुशस्थली थी। इस क्षेत्र का नामकरण महाकोसल के नाम पर हुआ था, जो कोसल-प्रदेश में स्थित था। राजा भानुमंत की पुत्री कौशल्या का विवाह राजा दशरथ से हुआ था। उनके तीन पुत्रों में से एक श्रीराम का ननिहाल छत्तीसगढ़ में हुआ था। छत्तीसगढ़ में प्रचलित प्राचीन भाषा कोसली थी।
सरगुजा जिले में रामगढ़ की पहाड़ी, सीतावेंगरा और लक्ष्मणचेंगरा की गुफाएं, राम, सीता और लक्ष्मण ने काफी समय व्यतीत किया था। यहां किष्किंधा पर्वत में बालि वध का भी प्रमाण मिलता है। इसलिए, छत्तीसगढ़ के सम्बन्ध में रामायण के इतिहास से गहरा संबंध है।
जांजगीर-चौपा में स्थित खरीद एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का निर्माण करता रहा है। इस स्थान पर खरदूषण का साम्राज्य था, जो लोकप्रियता के लिए जाना जाता है। इसी जगह पर लक्ष्मण ने स्थापित किया लखनेश्वर महादेव मंदिर, जिसे लाखा चाऊर मंदिर भी कहा जाता है। साथ ही, शिवरीनारायण को शबरी आश्रम के रूप में भी चिह्नित किया जाता है।
बारनवापारा अभ्यारण्य में स्थित तुरतुरिया वाल्मिकी ऋषि का आश्रम है, जहां लव-कुश का जन्म हुआ था। आज भी कांकेर जिले में पंचवटी स्थल उपलब्ध है, जो रामायण महाकाव्य के अनुसार सीताजी का हरण हुआ था।
इसके अलावा, रामायण महाकाव्य में दण्डकार प्रदेश को इक्ष्वाकु के पुत्र दण्डक का साम्राज्य माना जाता है। यहाँ से अनेक प्राचीन धर्म एवं संस्कृति संबंधित चिन्हों की खोज की गई है। रामायण महाकाव्य में दण्डकारण्य का सर्वाधिक उल्लेख किया गया है |
छत्तीसगढ़ का इतिहास बस्तर रामायण काल से जुड़ा है। रामायण काल में, छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल का भाग था और इसका नाम कुशस्थली था, जो वर्तमान छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में स्थित है।
छत्तीसगढ़ का इतिहास बहुत विस्तृत है और इसके विभिन्न अंगों में कई राजाओं ने शासन किया। छत्तीसगढ़ में महत्वपूर्ण संस्थाओं जैसे मौर्य वंश, सतवाहन वंश, राजपूत राजवंश और मराठा साम्राज्य ने अपना प्रभाव डाला।
छत्तीसगढ़ का इतिहास बस्तर राज्य के साथ तंग नहीं है। छत्तीसगढ़ का इतिहास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक जाता है। छत्तीसगढ़ में भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, शंकर शाह और अन्य क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता संग्राम की जंग लड़ी थी।
छत्तीसगढ़ के इतिहास (Chhattisgarh Ka Itihas) का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस राज्य का इतिहास विविधता और समृद्धता से भरा हुआ है।
महाभारत काल में छत्तीसगढ़ का इतिहास (Chhattisgarh ka Itihas):
महाभारत महाकाव्य के अनुसार, छत्तीसगढ़ प्राक-कोसल का भाग था। मणिपुर (रतनपुर), चित्रांगदपुर (सिरपुर), खल्लवाटिका (खल्लारी) और भाण्डेर (आरंग) महाभारत काल में प्रमुख स्थल थे। इन्हीं स्थलों में खल्लारी में लाक्षागृह एवं भीम के पद चिन्ह भीमखोह के भी साक्ष्य मिलते हैं।
चित्रांगदा, जो सिरपुर की राजकुमारी थी, अर्जुन की पत्नी भी थी। महाभारत के युद्ध काल में, अर्जुन के पुत्र भब्रुवाहन की राजधानी भी सिरपुर में ही थी। इस भाग में राजा मोरध्वज और ताम्रध्वज भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
महाजनपद काल:
महाजनपद काल के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं। पुरातत्वविद डॉ. हीरालाल के अनुसार, छत्तीसगढ़ महाजनपद का भाग था जिसमें त्रिपुरी मध्य प्रदेश भी शामिल था। उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ शब्द चेदिसगढ़ का अपभ्रंश है।
पुरातत्वविद जी.वी. पेल्गर के अनुसार, मगध महाजनपद (पटना, बिहार) के राजा जरासंध के अत्याचार से पीड़ित होकर, छत्तीसगढ़ के कुछ लोगों ने इस प्रदेश में बसने का फैसला किया। समय के साथ, छत्तीसगढ़ का नाम छत्तीस घर से रूपांतरित हुआ।
बौद्धकाल में (Chhattisgarh Ka Itihas):
बौद्धकाल एक ऐतिहासिक काल है जिसे भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। यह काल सभी तीन प्रकार के ऐतिहासिक साक्ष्यों - पुरातात्विक, साहित्यिक और यात्रा वृतांतों के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए भारत का इतिहास इस काल के साक्ष्यों के आधार पर क्रमिक रूप से प्राप्त होता है।
पूर्वी भारतीय उपमहाद्वीप का छठवा शताब्दी ईसा पूर्व में विभिन्न जनपदों और महाजनपदों में विभाजित था। छत्तीसगढ़ प्रदेश का वर्तमान कोसल जनपद भी इस विभाजन का एक हिस्सा था।
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपने धर्म के प्रचार के लिए अनेक स्थानों पर यात्रा की। उनमें से एक स्थान सिरपुर है, जहां प्रभु आनंदकुटी विहार और स्वास्तिक विहार स्थित हैं। इन स्थानों से यह साबित होता है कि बौद्ध धर्म का प्रचार छत्तीसगढ़ के क्षेत्र में भी हुआ था।
जैन धर्म:
छत्तीसगढ़ में जैन धर्म का इतिहास बहुत प्राचीन है और यहां 24 तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है। प्रथम तीर्थकर ऋषभ देव गुंजी (जांजगीर-चांपा) में थे, 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ नगपुरा (दुर्ग) में रहते थे और जैन धर्म के संस्थापक तथा 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी आरंग (रायपुर) में जन्मे थे। इसलिए, छत्तीसगढ़ में जैन धर्म के इतिहास की घटनाओं का अनुभव करने का अवसर मिलता है।
यह एक ऐसा स्थान है जहां जैन धर्म के प्रचारक विवेक मुनी ने अपने धार्मिक संदेश को फैलाया था। छत्तीसगढ़ में जैन मंदिरों की संख्या भी काफी अधिक है जो इस क्षेत्र के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को बनाए रखते हैं। छत्तीसगढ़ के इन मंदिरों की संरचना और विस्तार भी बहुत सुंदर है।
इसलिए, छत्तीसगढ़ के जैन धर्म का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है और इसे समझना हमारे इतिहास और संस्कृति को समझने में मदद करता है।
मौर्यकाल (Chhattisgarh Ka Itihas):
विभिन्न ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार, मौर्य काल में छत्तीसगढ़ का उत्तरी भाग कलिंग देश का हिस्सा था, जबकि शेष छत्तीसगढ़ का भाग था। लेकिन अशोक के कलिंग विजय के बाद, छत्तीसगढ़ मौर्य साम्राज्य का एक भाग बन गया। यहां के रामगढ़ पहाड़ी में स्थित जोगीमार की गुफा मौर्य काल की प्रमुख पुरातात्विक धरोहर है। गुफा में चित्रित शैलचित्रों की भाषा पाली और लिपि ब्राह्मी है। साथ ही, सुतनुका और देवदत्त की प्रेम कहानी भी उत्कीर्ण है।
शेष छत्तीसगढ़ का भाग कलिंग देश का हिस्सा था, जो मौर्य साम्राज्य के अधीन था। हालांकि, अशोक के कलिंग विजय के बाद, छत्तीसगढ़ का भाग मौर्य साम्राज्य का एक भाग बन गया। यह इस क्षेत्र की ऐतिहासिक महत्वपूर्णता को बताता है।
सातवाहन काल:
किरारी गाँव के तालाब से प्राप्त हुआ गया सातवाहन कालीन काष्ठ स्तम्भ वर्तमान में रायपुर के घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। यह स्तम्भ जांजगीर-चांपा जिले में स्थित है।
इसके अलावा, गुंजी से वरदत्तश्री के अभिलेख भी पाए गए हैं।
अन्य एक महत्वपूर्ण साक्ष्य हवेनसाँग की यात्रा वृत्तांत में उल्लेख है, जिसमें दार्शनिक नागार्जुन दक्षिण कोसल के निकट निवास करते थे। उनके निवास के लिए पांच मंजिला संघाराम बनाया गया था।
राजा अपीलक के मल्हार और बालपुर में सिक्के पाए गए हैं।
रोमकालीन स्वर्ण सिक्के चकरबेड़ा, बिलासपुर में पाए गए हैं। उपरोक्त साक्ष्य साबित करते हैं कि सातवाहन काल का अधिपत्य छत्तीसगढ़ में भी था।
कुषाण काल (Chhattisgarh History):
छत्तीसगढ़ के इतिहास में कुषाण वंश का अल्पकालीन शासन हुआ था। यह बात कुषाण वंश के शासकों विक्रमादित्य और कनिष्क के सिक्कों से स्पष्ट होती है। ये सिक्के छत्तीसगढ़ से प्राप्त हुए थे।
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में खरसिया तहसील के तेलीकोट गांव में पुरातत्ववेत्ता डॉ. सी. के. साहू को कुषाण कालीन सिक्के मिले हैं। वहां के ताम्बे के सिक्कों में भी कुषाण वंश के राजाओं के चिह्न और अक्षर दिखाई देते हैं।
इसी तरह, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में भी कुषाण वंश के राजाओं के ताम्बे के सिक्के पाए गए हैं। यह सिक्के भी कुषाण वंश के शासनकाल की गहराई को दर्शाते हैं।
इस तरह, छत्तीसगढ़ के इतिहास में कुषाण वंश का अल्पकालीन शासन था जिसका प्रमाण उनके सिक्कों और ताम्बे के सिक्कों से मिलता है।
गुप्त काल:
गुप्त काल के प्रारंभिक दौर में दक्षिण कोसल उत्तरी कोसल तथा दक्षिणी कोसल के दो भागों में विभाजित था। उत्तरी कोसल में बिलासपुर, जयपुर और सम्बलपुर जिलों के कुछ हिस्सों में समुद्रगुप्त द्वारा महेन्द्र नामक समकालीन राजा का शासन था। दक्षिणी कोसल में बस्तर शामिल था, जिसे महकातार के नाम से भी जाना जाता था।
हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा पराजित किए गए राजाओं का उल्लेख है, जिसमें कोसल के राजा महेन्द्र और महाकातार के अधिपति व्याघ्रराज का नाम अंकित है।